गुरुवार, 26 नवंबर 2009

ख्वाबों की मलिका नहीं है तो,परियों का आना वाकी है|

खाना छोड़ दिया मैंने,
और सोना छोड़ दिया मैंने ,
उनका नशा अनोखा था ,
मैखाना छोड़ दिया मैंने |

अब कोरी धुंधली यादों में,
विस्तर को तोड़ रहा हूँ मैं,
पलकों की भीगी छाया में,
आंसू को छोड़ रहा हूँ मैं |

जब टूट रहे हैं तारे तो ,
गिरने से कौन बचाएगा?
जब छूट रहे है सारे तो,
मैखाने कोन न जायेगा ?

क्षितिज हमें अब ढूढ़ रहा है,
आसमान की काया में ,
धरती के झूठे घेरे में ,
अम्बर की नीली छाया में |

पर पता नहीं मुझको भी,
मैं कहाँ बिचरनित करता हूँ ?
उनके सपनो में या यादों में,
बाहर आने से डरता हूँ |

तुम कहीं पता मत दे देना,
मैं जीते जी मर जाऊँगा,
उनकी यादों के बल पर,
मैं नया जहान बनाऊँगा |

तुम डरो नहीं, मैं खो जाऊं,
मेरे संग अपना साकी है ,
ख्वाबों की मलिका नहीं है तो,
परियों का आना वाकी है|

5 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात भाई जी , लाजवाब रचना लगी । बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  2. "पर पता नहीं मुझको भी,
    मैं कहाँ बिचरनित करता हूँ ?
    उनके सपनो में या यादों में,
    बाहर आने से डरता हूँ |"

    दूसरी पंक्ति में ’बिचरनित’ ने खटका दिया । देख लें ।

    सुन्दर प्रविष्टि । आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जब टूट रहे हैं तारे तो ,
    गिरने से कौन बचाएगा?
    जब छूट रहे है सारे तो,
    मैखाने कोन न जायेगा ?

    खूब बहाना ढूंढ लिया मैखाने जाने का ...!!

    जवाब देंहटाएं