मंगलवार, 10 जनवरी 2012

संविधान की लाश

संविधान की लाश पड़ी है ,
कोई नहीं उठाता अब ,
तेरी महीयत पर बैठा था
क्या निष्कर्ष बताता तब |

संसद महियत बनी हुई थी
अभी नहीं तय हो पाया
संविधान की लाश उठाने पर
पर कोलाहल है छाया |

कोई कहता इसे जला दो ,
कोई कहता दफना दो ,

संविधान की लाश उठाने,
कंधे चार दिला दो |

मेरे आंशु बंधकर बैठे ,
इन आँखों के भीतर
अन्दर बैठे भौंक रहे थे,
कुत्ते चील कबूतर |

इन लोगों की नियति देखलो
क्या करते हो अब आशा,
संविधान को ताक पे रखकर
बतलाते है परिभाषा |

अब परिभाषाओं को बदलो,
आरक्षण का रक्षण बदलो ,
भाषाओँ का प्रतिक्षण बदलो,
संविधान का भक्षण बदलो |

संविधान को मांस समझकर,
डर लगता है खा जायेंगे,
बाबा  साहब की आँखों भी,
आंशु अब आ जायेंगे |