गुरुवार, 5 सितंबर 2013

कलम का आगाज़

वर्षों बीत गए हाथों को ,
कलम नहीं मिल पाई थी,
धूमिल बस्ती रात अंधेरी 
दिन में भी दिखलाई दी । 

फिर सोचा सपनों को लेकर 
फिर सोचा अपनों को लेकर,
मैंने कब इन्साफ किया है 
सपनों को बेकार किया है । 

यही व्यर्थ स्वर मन के अन्दर 
विचलन पैदा करते हैं,
सुर्ख, अँधेरी रातों में 
निद्र विघ्न मन करते हैं । 

अभी स्थति और परिस्थति 
मेरी एक सुपारी सी ,
फंसी सरोता के पंखों में
कटती जाती क्यारी सी । 

कभी फिसल जाती पंखों से 
कभी टूट कर हाथों में,
तब बिचलित हो उठता मन 
तभी शीघ्र वह दांतों में । 

फिर कुछ लिखने का मन करता
जल्दी उठने का मन करता,
कुछ लिखने की ख्वाहिश में 
मैं रात रात भर जागा करता । 

तभी कलम रुक जाती है,
कहती है स्याही दो तुम 
मैं वर्वस बेचारा कहता 
क्यूँ इठलाती हो अब तुम । 

स्याही खर्च हुई है मेरी 
दफ्तर के दस्तानों में,
या फिर निकल गई है सारी 
विसवत के विज्ञानों में ।

कहती है मुझसे वह फिर से 
सूख गयी स्याही अब मन की,
अंधी होकर बैठी हूँ अब 
वस्त्र विहीन मत्थ मन तन की । 

बर्बाद किया है मुझको तुमने 
गद्देदार पुलंदों में 
कितनी रंग-विरंगी थी 
जब रहती थी मैं अंधों में । 

मैं कहती गाथा दिन भर 
लोगों के मन भावों की ,
स्वतः शांति के आँचल  में 
वन उपवन मन नावों  की । 

कभी तैरती नदियों में थी 
कभी उदधि की आहों में ,
कभी आसमानों को चूमूं 
कभी धरा की वाहों में । 

कभी बनी तूफ़ान भाव की 
कभी बनी अंगारों सी ,
कभी चाँद सी शीतल होती 
कभी चमकती तारों सी । 

कभी कड़कती बिजली सी 
तो कभी मेघ भर वर्षाती ,
तुम मत भूलो देखो मुझको 
कभी धरा सी थर्राती । 

ये मत भूलो मैं जिंदा हूँ 
मुझे नहीं कोई मार सका ,
स्थति और परिस्थति में भी 
मुझे नहीं कोई हार सका । 

मैं ही तो इतिहासकार हूँ 
मैं ही हूँ विज्ञान ,
मैंने ही भूगोल बनाया 
मैं ही हूँ  हरि ज्ञान । 

हर भाषा की पहली आँखें 
हर गाथा की म्यान ,
सब धर्मों का मैं ही देती 
उर उर कर से ज्ञान । 

तुम्हे जगाने निकली हूँ मैं 
स्याही लेकर आ जाओ ,
सुमधुर मंद सुमंद हवा में 
साहस भरकर आ जाओ । 

मैंने ही उर के आँगन में
बीज भाव का बोया है ,
दूर ह्रदय के अंतः कलह में 
मैंने भी कुछ खोया है । 

तलवार बना लो मुझको तुम 
और बना लो ढाल ,
कवच बना लो मुझको ही तुम 
करो कूंच तत्काल । 

उग्र न हो जाना तुम देखो 
कही रक्त गलियारी  में 
कहीं कमीं ना रह जाए अब 
शक्ति शांति तैयारी में । 

तू चल, हो न विचल 
इन पथरीली मजधारों में ,
धर्म, द्वेष , पाखण्ड नीति 
और भाषा के गलियारों में । 

लिख डालो गाथाएँ उनकी 
जिनका रक्त ह्रदय मेरा ,
जिनकी क्रांति लिखी हैं मैंने
ह्रदय बना गौरव तेरा । 

जिनके खूं से लिखी गई है 
भारत की मधुवाणी ,
जिनके खूं से लिखी गई है 
गुरुओं की गुरुवाणी । 

जिनका रक्त बना स्याही था 
जीवन उनका कागज ,
कलम बनी आवाज़ उन्ही की 
मत्था जिनका सरध्वज । 

मैं विस्वास दिलाती हूँ 
ना तुम्हे कोई छु पाएगा ,
रंग विरंगी स्याही से 
भारत का भाग्य बनाएजा । 

बुधवार, 30 जनवरी 2013

 मेरा अभिमान

सौजन्य हिमालय सा सुख है ,
तेरे आलिंगन का रुख है ।
तू तारों की परिभाषा है ,
तू जीवन की अभिलाषा है ।

तू मेरी मिटटी का सोना है ,
आँगन का एक खिलौना है ।
तेरी चाहत के फूलों में ,
मैं रौंध गया हूँ शूलों को ।

तू हृदय क्रांति का मंथन है ,
घर के दीपक का अंकन है।
तू चले हवाओं से आगे ,
आकाश तुझे छोटा लागे ।

सूरज सा तेज रहे तेरा ,
चन्दा सा शीतल हृदय तेरा ।
तारों सी चमक रहे हरदम,
तू धरती पर अभिमान मेरा ।



सोमवार, 14 जनवरी 2013

गांधीजी जी की लाठी और उनका मौन !

एक देश होता है , उस देश में कई समाज होते है और हर समाज के अपने अपने मुखिया होते है । इन मुखियाओं पर लगाम कसने के लिए रोज़ कई संस्थाएं खड़ी  होती है और उन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार होती है । लेकिन पिछले 2 वर्ष में हम भारतीयों ने देश के हर हिस्से , हर समाज, हर संस्था और हर सरकार का अपने अपने स्तर पर घिनोना ध्रुवीयाकरण करते  देखा, और ऐसा देखा कि सारे देश की जनता (आम आदमी ) दंग रह गई । तब देश की जनता का आक्रोश सडकों पर फूटा ।

ऐसी परिस्थिति में सरकार ने वही कदम उठाये जो उसे उठाने चाहिए थे । महात्मा गांधी के इस देश में गाधीजी के व्यक्तित्व को सही रूप में इस सरकार ने पिरोया है - "गांधीजी की लाठी और मौन धारण करना " । यदि जनता का आक्रोश ज्यादा बढ जाए तो लाठी का इस्तेमाल करो वरना चुपचाप सडकों पर तुम भी बैठो और चाहे जितने दिन बैठो मैं तो मौन धारण कर ही चूका हूँ । इस  दौरान कई आन्दोलन खड़े हुए, चाह जनलोकपाल के लिए हो , चाहे काला धन वापस लाने के लिए हो या फिर महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिलाओं और क्षात्रों का आन्दोलन रहा हो । "पुलिस की लाठी और सरकार का मौन" दोनों बराबर कायम रहे । शायद अब यही लोकतंत्र की परिभाषा है । अगर यही परिभाषा है तो हमें इस परिभाषा को बदलना पड़ेगा ।

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान खुदरा बाज़ार की लडाई में कपिल सिब्बल ने खुदरा बाजार के पक्ष में ये तर्क रखा था कि " बड़े शहरों में शहरों के बीचोंबीच तो मॉल खुलने से रहे क्योंकि उन्हें वहां पर जगह ही नहीं मिलेगी , शहर के बाहर आम आदमी जा नहीं सकता क्योंकि उसके दो मुख्या कारण है एक तो ये कि 40% लोग आज भी साइकल से यात्रा करते है और करीब जो इतनी दूर शहर के बाहर सामान खरीदने साइकल से जा नहीं सकते , दूसरा ये की लगभग 30% लोग स्कूटर चलाने वाले है जो कि एक साथ बहुत सारा सामान ला नहीं सकते तो बचे 30% लोग ही सिर्फ इन मॉल से सामन खरीद सकते है " । मैं कपिल सिब्बल की इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ क्योंकि उन्होंने ये बात ध्यान में रखते हुए कहा होगा  कि खुदरा बाजार में सबसे अधिक सामान खरीदने वाली महिलाएं होती है जो ज्यादातर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती है ( मैं आम महिलाओं की बात कर रहा हूँ )। वो महिलाएं एक तो बलात्कार के डर से बसों में यात्रा कर बड़े बड़े मॉल से सामान खरीदने नहीं जायेंगी और अगर चली भी गईं तो एक बार बलात्कार का सिकार होंगी फिर दूसरी बार नहीं जायेंगी । कपिल सिब्बल के गणित का और उनके अनुमान का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है । वो कितनी दूरगामी सोच रखते है ।

कपिल सिब्बल को ये बताते हुए बड़ा गर्व हुआ होगा की उनके क्षेत्र में जहाँ से वो कई सालों से चुनाव लड़ते आ रहे है वहां पर 40 % (चांदनी चौक ) लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं ।

समाज के उन पहलुओं पर भी एक नज़र डालिए जो देश पुरे विश्व में सबसे तेज़ गति से तरक्की करने की साख बना चुका  हो, जिस देश की सभ्यता की साख पूरे विश्व में हो उस देश में समाज के कुछ ठेकेदार सभ्यता का हवाला देते हुए हॉरर किलिंग जैसे कड़े कदम उठाने पर मजबूर कर देते है । या फिर ऐसे फरमान जारी कर देते है जिनका जिक्र हमारे इतिहास के किसी भी पन्ने के किसी भी कोने में नहीं मिलता । जिस समाज में नारी को देवी माना जाता हो, उसी देश में आज लोग नारी का अपमान करने से नहीं चूकते । नारी का अपमान उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है । बड़े बड़े NGO इनके उद्ध्हार का वीणा उठाकर सिर्फ और सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते हुए नज़र आ रहे है । पुलिस और प्रशासन इन सभी वारदातों को या तो चैन बैठ कर देखते रहते है या फिर उनमें नमक की तरह घुले हुए है । बिडम्बना ये है की इस नमक को अलग करें तो करें कैसे ? अब तो एक ही उपाय है कि शासन और प्रशासन के इस घोल को उबाला  जाए और इस उबाल को आग देने के लिए जनता का आक्रोश हर रूप में जायज है । तो आओ हम इस आग की एक एक लकड़ी बनते हैं और इस आग को तब तक बुझने नहीं दें जब तक कि शासन और प्रशासन की तानाशाही पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाती ।

देश की तरक्की की इस कहानी में एक बात और रखना चाहता हूँ । पिछले साठ सालों में भारत ने जिस गति से तरक्की की है उस गति से शायद ही कोई देश कर पाया हो । देखते ही देखते छोटे मोटे कस्बे शहर में तब्दील होते जा रहे है , गाँव खाली होते जा रहे हैं । देश के चहुमुखी विकास का दावा करने वाली सरकारें अब तक किसानों का दर्द नहीं समझ पायीं । न अनाज का कोई मूल्य रहा, न सुविधाएं दी गयीं । ये गाँव दिन व दिन अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली , पानी , सड़क से बंचित ही होते जा रहे है । ऊपर से क़र्ज़ के ऊपर क़र्ज़ बढता जा रहा है । तो किसान करे तो क्या करे । फिर दो वक्त की रोटी की  तलाश  वो शहर की तरफ भागता है और शहर में आकर क्या देखता है कि एक दौड़ लगी हुई है हर चीज़ में । पिछले 2 सालों में जिस हिसाब से मंहगाई दर बड़ी है उससे कही अधिक गति से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये का मूल्य गिर है जिससे आम आदमी की आमदनी लगभग आधी रह गयी है । इस हाल सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम निराशा ही दे रहा है । क्या शहर और गाँव की दीवार इतनी मजबूत है कि इसे तोड़ने के लिए 60 साल भी कम पद गए है । मुझे लगता है जिस हिसाब से देश तरक्की की बुनियादें डालता जा रहा है उससे शहर और गाँव के बीच की ये मोटी दीवार और मोटी  होती जा रही है । तो फिर ये दीवार गिरायें तो गिरायें कैसे ? क्या इसी तरह देश का किसान  भूख से मरता रहेगा ? यह हमें सोचना होगा और इस दिशा में कड़े कदम उठाने पड़ेंगे । अब यही हमारी प्रगति की सही नीव होगी ।


मंगलवार, 10 जनवरी 2012

संविधान की लाश

संविधान की लाश पड़ी है ,
कोई नहीं उठाता अब ,
तेरी महीयत पर बैठा था
क्या निष्कर्ष बताता तब |

संसद महियत बनी हुई थी
अभी नहीं तय हो पाया
संविधान की लाश उठाने पर
पर कोलाहल है छाया |

कोई कहता इसे जला दो ,
कोई कहता दफना दो ,

संविधान की लाश उठाने,
कंधे चार दिला दो |

मेरे आंशु बंधकर बैठे ,
इन आँखों के भीतर
अन्दर बैठे भौंक रहे थे,
कुत्ते चील कबूतर |

इन लोगों की नियति देखलो
क्या करते हो अब आशा,
संविधान को ताक पे रखकर
बतलाते है परिभाषा |

अब परिभाषाओं को बदलो,
आरक्षण का रक्षण बदलो ,
भाषाओँ का प्रतिक्षण बदलो,
संविधान का भक्षण बदलो |

संविधान को मांस समझकर,
डर लगता है खा जायेंगे,
बाबा  साहब की आँखों भी,
आंशु अब आ जायेंगे |


रविवार, 8 मई 2011

शत शत नमन-माते !

समय का बड़ा ही निराला खेल है, माते की कृपा में पला बड़ा लेखक अगर माते को भूल जाए तो निश्चित रूप से उनका अपमान ही होगा , नहीं तो जीवन की अंधी दौड़ में लोग गधे की तरह हजामत करवाते रहे और अंत में अंतरिक्ष में विलीन होकर उन ख्वावों की बदहवासी में सो गए जो उन्होंने अपने दिल के किसी कोने में आज भी छुपा के रखे है | आज में बहुत शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने फिर से मेरी सोती हुई कलम को  जगा दिया |

लोग आज भी मुम्बई के विशाल भवसागर में डूबने की कोशिश करते रहते है परन्तु गोते खाकर फिर से किनारे पर आ जाते है परुन्तु लेखक के दिल के तार आज भी उन यादों से इतनी खूबसूरती से जुड़े हैं जैसे मिलन की संध्या में सुबह का मुर्गा वाग दे तो लेखक की भावनाएं तीव्रता से आवागमन करती हुई उत्तरपूर्वी हवाओं को छूते हुए पंजाब के सरसों के फूलों की खुशबू लेते हुए सारे भारत का भ्रमण करते हुए दक्षिण भारत के चना की भुत्त्यों का स्वाद चखकर सीधे मुम्बई से जुड़ जाती है | यही बात है कि माते का सबसे बड़ा उपासक अपनी सज्जनता का प्रमाण देते हुए अपनी एक छोटी सी कहानी के अंतिम पड़ाव पर इसलिए बार बार पहुँच जाता है क्योंकि उसके अपने साथी ही उसकी अखंड उपासना को बार बार भंग कर देते है |

मैं सच कहता हूँ कि लेखक की बेशर्मी की हद तो देखिये कि लोग बेशर्मा की उपाधी देकर मिलन समारोह में यही अर्चना करते है कि उपासक की उपासना बंद हो जाए और लेखक की कलम टूट जाए और मैं जनता हूँ यही नहीं लोग इस सन्दर्भ में ऐसी प्रतिक्रिया करेंगे कि उसी की कलम को यही पर भला बुरा कहेंगे | और लेखक की निर्लाज्जिता देखो वो फिर भी बाज नहीं आयेगा | आप लोग सोच रहे होंगे कि माते में ऐसा क्या है जब देखो तब लेखक माते की भक्ति में विलीन रहता है परन्तु सच में उसका दर्जा मेरी नज़रों में इतना ऊँचा है कि मैं नतमस्तक होकर उसको नमन करता हूँ | माते मेरे हिस्से का सच यही है कि मैं तहे दिल से आपकी इज्ज़त करता हूँ आपको शत शत नमन करता हूँ , लोग कुछ भी कहें पर आप मेरे हिस्से की सच्चाई को  जानती है |

शत शत नमन !

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

भाई बनना इतना आसान नहीं

आज का चिटठा आपके ह्रदय की मार्मिक कहानी को छू करके यादों के उस गहरे सागर में डूब जायेगा जिसकी व्यथा राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान जालंधर की लवर स्ट्रीट (यह वो सड़क है जो इंडस्ट्रियल डिपार्टमेंट और टेनिस कोर्ट के बीच में है जिसने इश्क की कामयाबी और नाकामयाबी के सभी मंजर देखे है )से शुरू होती है | यहाँ पर कई रिश्ते बने और कई रिश्ते टूटे | इस सड़क के दोनों छोर पर दो ऐसे तिराहे है जहाँ पर मनुष्य एकाकी हो जाता है और अपनी दिशायें निर्धारित कर लेता है | और ऐसे कई उदाहरण है जिसमे लोगो ने अपनी परिभाषाएं बदली , आशाएं बदली यहाँ तक कि कई सिविलियन तो आत्म श्रुति करते हुए भावनाओं के उस गहरे मंजर में डूबे हुए है जिससे बाहर निकलने की किसी को कोई आशा नहीं है | यहाँ पर कुछ रिश्ते प्यार से बनते है, कुछ रिश्ते मजबूरी से और कुछ रिश्ते तो सिर्फ आत्मसंतुष्टि में ही निपट कर रह जाते है |

परन्तु मैं सिर्फ मजबूरी से बने रिश्ते की बात कर रहा हूँ और इस पवित्र रिश्ते का नाम है कॉलेज में न चाहते हुए बनाया गया भाई - बहिन का रिश्ता | और ये हमारी आप बीती नहीं बाप बीती है, आशय यह है कि यह प्रथा हमारे गोडजिला जैसे सीनिअर्स या यूँ कहें कि बाप दादाओं के जमाने से चली आ रही है | ऐसे खुशनसीब बहुत कम है जिन्होंने इन रिश्तो की खातिर विदिपुर में आंसुओं की नदियाँ न बहाई हों | इतिहास गवाह है कि इन रिश्तों की खातिर कई महासंग्राम हुए हैं जिनमे से एक है महाभारत | और इस महाभारत के मुख्य नायक एक ऐसे सज्जन व्यक्ति रहे है जिन्होंने माते की उपासना तो छोडो मजबूरी की संध्या की रौनक में भाई बनकर भी द्रौपदी का किरदार बखूबी निभाया है | और त्रिया चरित्र तो देखो कि जब जब महाभारत होगा तब तब द्रौपदी का चीर हरण तो होगा ही | और क्या कहूँ इस चीर हरण में हमारे नायक वासना की छोड़ो आसना के बसीभूत होकर रह गए |

महानता की पराकाष्ठा में शब्दों की सीमाएं नहीं होती | मैं ऐसे इंसान की बात कर रहा हूँ जो इंसान के रूप में स्वयं कृष्ण है जिन्होंने वृन्दावन की हर गोपी के इर्द गिर्द बांसुरी बजाई परन्तु दुर्भाग्य तो देखो ये भी नहीं सोचा कि ये कलयुग की गोपियाँ है और यही कारण है कि वासना के वसीभूत हमारे कलयुगी कृष्ण सभी गोपियों के भाई बनकर रह गए, और दूसरों की बासुरियों की धुन पर नाचते हुए सभी बहिनों के कल्याणकारी कार्यों में जुट गए |

हमें ऐसे भाइयों के प्रति बेहद संवेदना है और आशा करता हूँ कि शादी के पश्चात यह स्थिति न बने | जीवन के अनगिनत सत्य इन रिश्तों की छाया में इस तरह छुपे हुए है कि जिनकी मर्यादाओं ने लेखक को भी उस नूतन सत्य से बचा नहीं पाया जिसे वह हमेशा से छुपाने की कोशिश कर रहा था | मर्यादाओं की चपेट में बैठा लेखक आज द्रष्टिहीन हो गया है , शब्दहीन हो गया है कि उसे ये भी नहीं दिखता है है कि इन्दस्त्रिअल समाज के साथ जो बुरा हो रहा है कि उस पर ध्यान दे और उनकी संवेदना को समझे जहाँ पर लड़की कमी यहाँ तक खल जाती है कि हर व्यक्ति के ह्रदय में निदय भावनाएं किसी व्यक्ति विशेष के रूप में हर दिन टेबल बदलती रहती है और वही पर किसी लड़की के विशेष समूह द्वारा दुत्कारा गया यह समाज कहाँ जाए जिनकी बजह से डरे हुए इस समाज ने यहाँ तक DS पर भी जाना बंद कर दिया | मैं आज इस समाज के प्रति बेहद भावुक हूँ और अत्यधिक सहानभूति है कि ये लोग करें तो क्या करें |

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

लेखक कठघरे में

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान जालंधर के अतिभ्रमण के क्रमांक में कुछ ऐसे पहलु खड़े हो जाते है कि जिन पर अत्यधिक विश्वास और निष्ठां के साथ मनोरंजन के महल में बैठा लेखक यही सोचता रहता है कि मुझे उन सभी निष्ठावानों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने मेरा पिछला ब्लॉग पढ़कर बस यही सोचा होगा कि कमवक्त मेरा नाम क्यों नहीं है कि मेरी भक्ति में क्या कमी रह गयी ? मुझे तो परमेश्वर की कृपा से सिर्फ फोन पर ही धमकाया गया, वरना जीवन के इस एतिहासिक समय में एक ऐसा चक्रव्यूह रचा जा सकता था या सकता है कि जिससे बाहर निकलने की कोशिश में लेखक के बचे हुए करीब - महीने बीत जाते |

आज लेखक कठघरे में है परन्तु सच्चाई को सरल भाव में और सजगता पूर्ण ढंग से आप सभी तक पहुंचाना मेरा कर्त्तव्य है और में अपने कर्त्तव्य को सही ढंग से निभाने में हमेशा सफल रहूँ ऐसी शक्ति और ऊर्जा की कामना मैं आप सभी से करता हूँ | हालांकि अंतिम वर्ष के चंद महीनों के कुछ पहलु सुबह की सैर में कुछ इस तरह बीत जाएंगे मानो अतीत के आनंद की शिखाओं का पीछा करते हुए चेन्नई से कलकत्ता तक पहुँच कर किसी समूह के दामाद बन बैठे हों | हालांकि इसी क्रम में कुछ पहलु इस तरह जुड़े है कि जिनकी खबर दिव्य ज्योति में विलीन होकर मस्ती (मस्की ) में झूमती हुई दिल के टुकड़ों के साथ संस्थान के वातावरण में इस तरह छा गयी कि जिसकी खुशबू से कोलाहल सा मच गया है | हालांकि समय के अनुसार उक्त घटना को सार्थक रूप से अंजाम देने के लिए पांडे और वीरे को दोसी ठहराया गया है | आपको बता दूं पांडे वह षड्यंत्रकारी और राजनीतिज्ञ है जिसने सारे अंतिम वर्ष के छात्रों के साथ गठजोड़ बनाकर अपने आप को दुनिया की नज़रों से अलग कर रखा है, मैं चाहता हूँ कि ऐसे व्यक्ति को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए |

वीरा और लड़की नदी के दो ऐसे किनारे है जो कभी मिल नहीं सकते, और जब जब ऐसा हुआ है तब तब वीरा के जीवन की नदी कि धार सी टूट गयी हो , साँसे थम सी जाती है गालियों का कोलाहल तो इस तरह थम जाता है जैसे रात में पक्षियों के चहचहाहट की आवाज़ थम जाती है |

समय के बारे में मैं तुम्हें क्या बताऊँ वैसे तो समय की उपाधि बहुतों को दी गयी है परन्तु मैं उस सर्वज्ञ समय की बात कर रहा हूँ जो फूलों के पराग से उस रस का सेवन करता है जिसकी महक तक भवरों ने नहीं ले पाए| चाहे वो मस्की - IIT से जुडी हुई डी फेक्टर की घटनाएं हो या मोटे की गटर में तैरने के विकास सम्बन्धी बातें हो |

समय के अनुसार लड़कियों के एक समूह के द्वारा दी गयी धमकी से इंडस्ट्रियल के सभी छात्र अंडर ग्राउंड है

क्या समय के रहते हुए अब लेखक को कठघरे में होना चाहिए ?