वर्षों बीत गए हाथों को ,
कलम नहीं मिल पाई थी,
धूमिल बस्ती रात अंधेरी
दिन में भी दिखलाई दी ।
फिर सोचा सपनों को लेकर
फिर सोचा अपनों को लेकर,
मैंने कब इन्साफ किया है
सपनों को बेकार किया है ।
यही व्यर्थ स्वर मन के अन्दर
विचलन पैदा करते हैं,
सुर्ख, अँधेरी रातों में
निद्र विघ्न मन करते हैं ।
अभी स्थति और परिस्थति
मेरी एक सुपारी सी ,
फंसी सरोता के पंखों में
कटती जाती क्यारी सी ।
कभी फिसल जाती पंखों से
कभी टूट कर हाथों में,
तब बिचलित हो उठता मन
तभी शीघ्र वह दांतों में ।
फिर कुछ लिखने का मन करता
जल्दी उठने का मन करता,
कुछ लिखने की ख्वाहिश में
मैं रात रात भर जागा करता ।
तभी कलम रुक जाती है,
कहती है स्याही दो तुम
मैं वर्वस बेचारा कहता
क्यूँ इठलाती हो अब तुम ।
स्याही खर्च हुई है मेरी
दफ्तर के दस्तानों में,
या फिर निकल गई है सारी
विसवत के विज्ञानों में ।
कहती है मुझसे वह फिर से
सूख गयी स्याही अब मन की,
अंधी होकर बैठी हूँ अब
वस्त्र विहीन मत्थ मन तन की ।
बर्बाद किया है मुझको तुमने
गद्देदार पुलंदों में
कितनी रंग-विरंगी थी
जब रहती थी मैं अंधों में ।
मैं कहती गाथा दिन भर
लोगों के मन भावों की ,
स्वतः शांति के आँचल में
वन उपवन मन नावों की ।
कभी तैरती नदियों में थी
कभी उदधि की आहों में ,
कभी आसमानों को चूमूं
कभी धरा की वाहों में ।
कभी बनी तूफ़ान भाव की
कभी बनी अंगारों सी ,
कभी चाँद सी शीतल होती
कभी चमकती तारों सी ।
कभी कड़कती बिजली सी
तो कभी मेघ भर वर्षाती ,
तुम मत भूलो देखो मुझको
कभी धरा सी थर्राती ।
ये मत भूलो मैं जिंदा हूँ
मुझे नहीं कोई मार सका ,
स्थति और परिस्थति में भी
मुझे नहीं कोई हार सका ।
मैं ही तो इतिहासकार हूँ
मैं ही हूँ विज्ञान ,
मैंने ही भूगोल बनाया
मैं ही हूँ हरि ज्ञान ।
हर भाषा की पहली आँखें
हर गाथा की म्यान ,
सब धर्मों का मैं ही देती
उर उर कर से ज्ञान ।
तुम्हे जगाने निकली हूँ मैं
स्याही लेकर आ जाओ ,
सुमधुर मंद सुमंद हवा में
साहस भरकर आ जाओ ।
मैंने ही उर के आँगन में
बीज भाव का बोया है ,
दूर ह्रदय के अंतः कलह में
मैंने भी कुछ खोया है ।
तलवार बना लो मुझको तुम
और बना लो ढाल ,
कवच बना लो मुझको ही तुम
करो कूंच तत्काल ।
उग्र न हो जाना तुम देखो
कही रक्त गलियारी में
कहीं कमीं ना रह जाए अब
शक्ति शांति तैयारी में ।
तू चल, हो न विचल
इन पथरीली मजधारों में ,
धर्म, द्वेष , पाखण्ड नीति
और भाषा के गलियारों में ।
लिख डालो गाथाएँ उनकी
जिनका रक्त ह्रदय मेरा ,
जिनकी क्रांति लिखी हैं मैंने
ह्रदय बना गौरव तेरा ।
जिनके खूं से लिखी गई है
भारत की मधुवाणी ,
जिनके खूं से लिखी गई है
गुरुओं की गुरुवाणी ।
जिनका रक्त बना स्याही था
जीवन उनका कागज ,
कलम बनी आवाज़ उन्ही की
मत्था जिनका सरध्वज ।
मैं विस्वास दिलाती हूँ
ना तुम्हे कोई छु पाएगा ,
रंग विरंगी स्याही से
भारत का भाग्य बनाएजा ।
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