एक देश होता है , उस देश में कई समाज होते है और हर समाज के अपने अपने मुखिया होते है । इन मुखियाओं पर लगाम कसने के लिए रोज़ कई संस्थाएं खड़ी होती है और उन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार होती है । लेकिन पिछले 2 वर्ष में हम भारतीयों ने देश के हर हिस्से , हर समाज, हर संस्था और हर सरकार का अपने अपने स्तर पर घिनोना ध्रुवीयाकरण करते देखा, और ऐसा देखा कि सारे देश की जनता (आम आदमी ) दंग रह गई । तब देश की जनता का आक्रोश सडकों पर फूटा ।
ऐसी परिस्थिति में सरकार ने वही कदम उठाये जो उसे उठाने चाहिए थे । महात्मा गांधी के इस देश में गाधीजी के व्यक्तित्व को सही रूप में इस सरकार ने पिरोया है - "गांधीजी की लाठी और मौन धारण करना " । यदि जनता का आक्रोश ज्यादा बढ जाए तो लाठी का इस्तेमाल करो वरना चुपचाप सडकों पर तुम भी बैठो और चाहे जितने दिन बैठो मैं तो मौन धारण कर ही चूका हूँ । इस दौरान कई आन्दोलन खड़े हुए, चाह जनलोकपाल के लिए हो , चाहे काला धन वापस लाने के लिए हो या फिर महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिलाओं और क्षात्रों का आन्दोलन रहा हो । "पुलिस की लाठी और सरकार का मौन" दोनों बराबर कायम रहे । शायद अब यही लोकतंत्र की परिभाषा है । अगर यही परिभाषा है तो हमें इस परिभाषा को बदलना पड़ेगा ।
संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान खुदरा बाज़ार की लडाई में कपिल सिब्बल ने खुदरा बाजार के पक्ष में ये तर्क रखा था कि " बड़े शहरों में शहरों के बीचोंबीच तो मॉल खुलने से रहे क्योंकि उन्हें वहां पर जगह ही नहीं मिलेगी , शहर के बाहर आम आदमी जा नहीं सकता क्योंकि उसके दो मुख्या कारण है एक तो ये कि 40% लोग आज भी साइकल से यात्रा करते है और करीब जो इतनी दूर शहर के बाहर सामान खरीदने साइकल से जा नहीं सकते , दूसरा ये की लगभग 30% लोग स्कूटर चलाने वाले है जो कि एक साथ बहुत सारा सामान ला नहीं सकते तो बचे 30% लोग ही सिर्फ इन मॉल से सामन खरीद सकते है " । मैं कपिल सिब्बल की इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ क्योंकि उन्होंने ये बात ध्यान में रखते हुए कहा होगा कि खुदरा बाजार में सबसे अधिक सामान खरीदने वाली महिलाएं होती है जो ज्यादातर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती है ( मैं आम महिलाओं की बात कर रहा हूँ )। वो महिलाएं एक तो बलात्कार के डर से बसों में यात्रा कर बड़े बड़े मॉल से सामान खरीदने नहीं जायेंगी और अगर चली भी गईं तो एक बार बलात्कार का सिकार होंगी फिर दूसरी बार नहीं जायेंगी । कपिल सिब्बल के गणित का और उनके अनुमान का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है । वो कितनी दूरगामी सोच रखते है ।
कपिल सिब्बल को ये बताते हुए बड़ा गर्व हुआ होगा की उनके क्षेत्र में जहाँ से वो कई सालों से चुनाव लड़ते आ रहे है वहां पर 40 % (चांदनी चौक ) लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं ।
समाज के उन पहलुओं पर भी एक नज़र डालिए जो देश पुरे विश्व में सबसे तेज़ गति से तरक्की करने की साख बना चुका हो, जिस देश की सभ्यता की साख पूरे विश्व में हो उस देश में समाज के कुछ ठेकेदार सभ्यता का हवाला देते हुए हॉरर किलिंग जैसे कड़े कदम उठाने पर मजबूर कर देते है । या फिर ऐसे फरमान जारी कर देते है जिनका जिक्र हमारे इतिहास के किसी भी पन्ने के किसी भी कोने में नहीं मिलता । जिस समाज में नारी को देवी माना जाता हो, उसी देश में आज लोग नारी का अपमान करने से नहीं चूकते । नारी का अपमान उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है । बड़े बड़े NGO इनके उद्ध्हार का वीणा उठाकर सिर्फ और सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते हुए नज़र आ रहे है । पुलिस और प्रशासन इन सभी वारदातों को या तो चैन बैठ कर देखते रहते है या फिर उनमें नमक की तरह घुले हुए है । बिडम्बना ये है की इस नमक को अलग करें तो करें कैसे ? अब तो एक ही उपाय है कि शासन और प्रशासन के इस घोल को उबाला जाए और इस उबाल को आग देने के लिए जनता का आक्रोश हर रूप में जायज है । तो आओ हम इस आग की एक एक लकड़ी बनते हैं और इस आग को तब तक बुझने नहीं दें जब तक कि शासन और प्रशासन की तानाशाही पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाती ।
देश की तरक्की की इस कहानी में एक बात और रखना चाहता हूँ । पिछले साठ सालों में भारत ने जिस गति से तरक्की की है उस गति से शायद ही कोई देश कर पाया हो । देखते ही देखते छोटे मोटे कस्बे शहर में तब्दील होते जा रहे है , गाँव खाली होते जा रहे हैं । देश के चहुमुखी विकास का दावा करने वाली सरकारें अब तक किसानों का दर्द नहीं समझ पायीं । न अनाज का कोई मूल्य रहा, न सुविधाएं दी गयीं । ये गाँव दिन व दिन अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली , पानी , सड़क से बंचित ही होते जा रहे है । ऊपर से क़र्ज़ के ऊपर क़र्ज़ बढता जा रहा है । तो किसान करे तो क्या करे । फिर दो वक्त की रोटी की तलाश वो शहर की तरफ भागता है और शहर में आकर क्या देखता है कि एक दौड़ लगी हुई है हर चीज़ में । पिछले 2 सालों में जिस हिसाब से मंहगाई दर बड़ी है उससे कही अधिक गति से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये का मूल्य गिर है जिससे आम आदमी की आमदनी लगभग आधी रह गयी है । इस हाल सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम निराशा ही दे रहा है । क्या शहर और गाँव की दीवार इतनी मजबूत है कि इसे तोड़ने के लिए 60 साल भी कम पद गए है । मुझे लगता है जिस हिसाब से देश तरक्की की बुनियादें डालता जा रहा है उससे शहर और गाँव के बीच की ये मोटी दीवार और मोटी होती जा रही है । तो फिर ये दीवार गिरायें तो गिरायें कैसे ? क्या इसी तरह देश का किसान भूख से मरता रहेगा ? यह हमें सोचना होगा और इस दिशा में कड़े कदम उठाने पड़ेंगे । अब यही हमारी प्रगति की सही नीव होगी ।
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