रविवार, 8 मई 2011

शत शत नमन-माते !

समय का बड़ा ही निराला खेल है, माते की कृपा में पला बड़ा लेखक अगर माते को भूल जाए तो निश्चित रूप से उनका अपमान ही होगा , नहीं तो जीवन की अंधी दौड़ में लोग गधे की तरह हजामत करवाते रहे और अंत में अंतरिक्ष में विलीन होकर उन ख्वावों की बदहवासी में सो गए जो उन्होंने अपने दिल के किसी कोने में आज भी छुपा के रखे है | आज में बहुत शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने फिर से मेरी सोती हुई कलम को  जगा दिया |

लोग आज भी मुम्बई के विशाल भवसागर में डूबने की कोशिश करते रहते है परन्तु गोते खाकर फिर से किनारे पर आ जाते है परुन्तु लेखक के दिल के तार आज भी उन यादों से इतनी खूबसूरती से जुड़े हैं जैसे मिलन की संध्या में सुबह का मुर्गा वाग दे तो लेखक की भावनाएं तीव्रता से आवागमन करती हुई उत्तरपूर्वी हवाओं को छूते हुए पंजाब के सरसों के फूलों की खुशबू लेते हुए सारे भारत का भ्रमण करते हुए दक्षिण भारत के चना की भुत्त्यों का स्वाद चखकर सीधे मुम्बई से जुड़ जाती है | यही बात है कि माते का सबसे बड़ा उपासक अपनी सज्जनता का प्रमाण देते हुए अपनी एक छोटी सी कहानी के अंतिम पड़ाव पर इसलिए बार बार पहुँच जाता है क्योंकि उसके अपने साथी ही उसकी अखंड उपासना को बार बार भंग कर देते है |

मैं सच कहता हूँ कि लेखक की बेशर्मी की हद तो देखिये कि लोग बेशर्मा की उपाधी देकर मिलन समारोह में यही अर्चना करते है कि उपासक की उपासना बंद हो जाए और लेखक की कलम टूट जाए और मैं जनता हूँ यही नहीं लोग इस सन्दर्भ में ऐसी प्रतिक्रिया करेंगे कि उसी की कलम को यही पर भला बुरा कहेंगे | और लेखक की निर्लाज्जिता देखो वो फिर भी बाज नहीं आयेगा | आप लोग सोच रहे होंगे कि माते में ऐसा क्या है जब देखो तब लेखक माते की भक्ति में विलीन रहता है परन्तु सच में उसका दर्जा मेरी नज़रों में इतना ऊँचा है कि मैं नतमस्तक होकर उसको नमन करता हूँ | माते मेरे हिस्से का सच यही है कि मैं तहे दिल से आपकी इज्ज़त करता हूँ आपको शत शत नमन करता हूँ , लोग कुछ भी कहें पर आप मेरे हिस्से की सच्चाई को  जानती है |

शत शत नमन !

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