गुरुवार, 5 सितंबर 2013

कलम का आगाज़

वर्षों बीत गए हाथों को ,
कलम नहीं मिल पाई थी,
धूमिल बस्ती रात अंधेरी 
दिन में भी दिखलाई दी । 

फिर सोचा सपनों को लेकर 
फिर सोचा अपनों को लेकर,
मैंने कब इन्साफ किया है 
सपनों को बेकार किया है । 

यही व्यर्थ स्वर मन के अन्दर 
विचलन पैदा करते हैं,
सुर्ख, अँधेरी रातों में 
निद्र विघ्न मन करते हैं । 

अभी स्थति और परिस्थति 
मेरी एक सुपारी सी ,
फंसी सरोता के पंखों में
कटती जाती क्यारी सी । 

कभी फिसल जाती पंखों से 
कभी टूट कर हाथों में,
तब बिचलित हो उठता मन 
तभी शीघ्र वह दांतों में । 

फिर कुछ लिखने का मन करता
जल्दी उठने का मन करता,
कुछ लिखने की ख्वाहिश में 
मैं रात रात भर जागा करता । 

तभी कलम रुक जाती है,
कहती है स्याही दो तुम 
मैं वर्वस बेचारा कहता 
क्यूँ इठलाती हो अब तुम । 

स्याही खर्च हुई है मेरी 
दफ्तर के दस्तानों में,
या फिर निकल गई है सारी 
विसवत के विज्ञानों में ।

कहती है मुझसे वह फिर से 
सूख गयी स्याही अब मन की,
अंधी होकर बैठी हूँ अब 
वस्त्र विहीन मत्थ मन तन की । 

बर्बाद किया है मुझको तुमने 
गद्देदार पुलंदों में 
कितनी रंग-विरंगी थी 
जब रहती थी मैं अंधों में । 

मैं कहती गाथा दिन भर 
लोगों के मन भावों की ,
स्वतः शांति के आँचल  में 
वन उपवन मन नावों  की । 

कभी तैरती नदियों में थी 
कभी उदधि की आहों में ,
कभी आसमानों को चूमूं 
कभी धरा की वाहों में । 

कभी बनी तूफ़ान भाव की 
कभी बनी अंगारों सी ,
कभी चाँद सी शीतल होती 
कभी चमकती तारों सी । 

कभी कड़कती बिजली सी 
तो कभी मेघ भर वर्षाती ,
तुम मत भूलो देखो मुझको 
कभी धरा सी थर्राती । 

ये मत भूलो मैं जिंदा हूँ 
मुझे नहीं कोई मार सका ,
स्थति और परिस्थति में भी 
मुझे नहीं कोई हार सका । 

मैं ही तो इतिहासकार हूँ 
मैं ही हूँ विज्ञान ,
मैंने ही भूगोल बनाया 
मैं ही हूँ  हरि ज्ञान । 

हर भाषा की पहली आँखें 
हर गाथा की म्यान ,
सब धर्मों का मैं ही देती 
उर उर कर से ज्ञान । 

तुम्हे जगाने निकली हूँ मैं 
स्याही लेकर आ जाओ ,
सुमधुर मंद सुमंद हवा में 
साहस भरकर आ जाओ । 

मैंने ही उर के आँगन में
बीज भाव का बोया है ,
दूर ह्रदय के अंतः कलह में 
मैंने भी कुछ खोया है । 

तलवार बना लो मुझको तुम 
और बना लो ढाल ,
कवच बना लो मुझको ही तुम 
करो कूंच तत्काल । 

उग्र न हो जाना तुम देखो 
कही रक्त गलियारी  में 
कहीं कमीं ना रह जाए अब 
शक्ति शांति तैयारी में । 

तू चल, हो न विचल 
इन पथरीली मजधारों में ,
धर्म, द्वेष , पाखण्ड नीति 
और भाषा के गलियारों में । 

लिख डालो गाथाएँ उनकी 
जिनका रक्त ह्रदय मेरा ,
जिनकी क्रांति लिखी हैं मैंने
ह्रदय बना गौरव तेरा । 

जिनके खूं से लिखी गई है 
भारत की मधुवाणी ,
जिनके खूं से लिखी गई है 
गुरुओं की गुरुवाणी । 

जिनका रक्त बना स्याही था 
जीवन उनका कागज ,
कलम बनी आवाज़ उन्ही की 
मत्था जिनका सरध्वज । 

मैं विस्वास दिलाती हूँ 
ना तुम्हे कोई छु पाएगा ,
रंग विरंगी स्याही से 
भारत का भाग्य बनाएजा । 

बुधवार, 30 जनवरी 2013

 मेरा अभिमान

सौजन्य हिमालय सा सुख है ,
तेरे आलिंगन का रुख है ।
तू तारों की परिभाषा है ,
तू जीवन की अभिलाषा है ।

तू मेरी मिटटी का सोना है ,
आँगन का एक खिलौना है ।
तेरी चाहत के फूलों में ,
मैं रौंध गया हूँ शूलों को ।

तू हृदय क्रांति का मंथन है ,
घर के दीपक का अंकन है।
तू चले हवाओं से आगे ,
आकाश तुझे छोटा लागे ।

सूरज सा तेज रहे तेरा ,
चन्दा सा शीतल हृदय तेरा ।
तारों सी चमक रहे हरदम,
तू धरती पर अभिमान मेरा ।



सोमवार, 14 जनवरी 2013

गांधीजी जी की लाठी और उनका मौन !

एक देश होता है , उस देश में कई समाज होते है और हर समाज के अपने अपने मुखिया होते है । इन मुखियाओं पर लगाम कसने के लिए रोज़ कई संस्थाएं खड़ी  होती है और उन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार होती है । लेकिन पिछले 2 वर्ष में हम भारतीयों ने देश के हर हिस्से , हर समाज, हर संस्था और हर सरकार का अपने अपने स्तर पर घिनोना ध्रुवीयाकरण करते  देखा, और ऐसा देखा कि सारे देश की जनता (आम आदमी ) दंग रह गई । तब देश की जनता का आक्रोश सडकों पर फूटा ।

ऐसी परिस्थिति में सरकार ने वही कदम उठाये जो उसे उठाने चाहिए थे । महात्मा गांधी के इस देश में गाधीजी के व्यक्तित्व को सही रूप में इस सरकार ने पिरोया है - "गांधीजी की लाठी और मौन धारण करना " । यदि जनता का आक्रोश ज्यादा बढ जाए तो लाठी का इस्तेमाल करो वरना चुपचाप सडकों पर तुम भी बैठो और चाहे जितने दिन बैठो मैं तो मौन धारण कर ही चूका हूँ । इस  दौरान कई आन्दोलन खड़े हुए, चाह जनलोकपाल के लिए हो , चाहे काला धन वापस लाने के लिए हो या फिर महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिलाओं और क्षात्रों का आन्दोलन रहा हो । "पुलिस की लाठी और सरकार का मौन" दोनों बराबर कायम रहे । शायद अब यही लोकतंत्र की परिभाषा है । अगर यही परिभाषा है तो हमें इस परिभाषा को बदलना पड़ेगा ।

संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान खुदरा बाज़ार की लडाई में कपिल सिब्बल ने खुदरा बाजार के पक्ष में ये तर्क रखा था कि " बड़े शहरों में शहरों के बीचोंबीच तो मॉल खुलने से रहे क्योंकि उन्हें वहां पर जगह ही नहीं मिलेगी , शहर के बाहर आम आदमी जा नहीं सकता क्योंकि उसके दो मुख्या कारण है एक तो ये कि 40% लोग आज भी साइकल से यात्रा करते है और करीब जो इतनी दूर शहर के बाहर सामान खरीदने साइकल से जा नहीं सकते , दूसरा ये की लगभग 30% लोग स्कूटर चलाने वाले है जो कि एक साथ बहुत सारा सामान ला नहीं सकते तो बचे 30% लोग ही सिर्फ इन मॉल से सामन खरीद सकते है " । मैं कपिल सिब्बल की इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ क्योंकि उन्होंने ये बात ध्यान में रखते हुए कहा होगा  कि खुदरा बाजार में सबसे अधिक सामान खरीदने वाली महिलाएं होती है जो ज्यादातर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती है ( मैं आम महिलाओं की बात कर रहा हूँ )। वो महिलाएं एक तो बलात्कार के डर से बसों में यात्रा कर बड़े बड़े मॉल से सामान खरीदने नहीं जायेंगी और अगर चली भी गईं तो एक बार बलात्कार का सिकार होंगी फिर दूसरी बार नहीं जायेंगी । कपिल सिब्बल के गणित का और उनके अनुमान का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है । वो कितनी दूरगामी सोच रखते है ।

कपिल सिब्बल को ये बताते हुए बड़ा गर्व हुआ होगा की उनके क्षेत्र में जहाँ से वो कई सालों से चुनाव लड़ते आ रहे है वहां पर 40 % (चांदनी चौक ) लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं ।

समाज के उन पहलुओं पर भी एक नज़र डालिए जो देश पुरे विश्व में सबसे तेज़ गति से तरक्की करने की साख बना चुका  हो, जिस देश की सभ्यता की साख पूरे विश्व में हो उस देश में समाज के कुछ ठेकेदार सभ्यता का हवाला देते हुए हॉरर किलिंग जैसे कड़े कदम उठाने पर मजबूर कर देते है । या फिर ऐसे फरमान जारी कर देते है जिनका जिक्र हमारे इतिहास के किसी भी पन्ने के किसी भी कोने में नहीं मिलता । जिस समाज में नारी को देवी माना जाता हो, उसी देश में आज लोग नारी का अपमान करने से नहीं चूकते । नारी का अपमान उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है । बड़े बड़े NGO इनके उद्ध्हार का वीणा उठाकर सिर्फ और सिर्फ अपना उल्लू सीधा करते हुए नज़र आ रहे है । पुलिस और प्रशासन इन सभी वारदातों को या तो चैन बैठ कर देखते रहते है या फिर उनमें नमक की तरह घुले हुए है । बिडम्बना ये है की इस नमक को अलग करें तो करें कैसे ? अब तो एक ही उपाय है कि शासन और प्रशासन के इस घोल को उबाला  जाए और इस उबाल को आग देने के लिए जनता का आक्रोश हर रूप में जायज है । तो आओ हम इस आग की एक एक लकड़ी बनते हैं और इस आग को तब तक बुझने नहीं दें जब तक कि शासन और प्रशासन की तानाशाही पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाती ।

देश की तरक्की की इस कहानी में एक बात और रखना चाहता हूँ । पिछले साठ सालों में भारत ने जिस गति से तरक्की की है उस गति से शायद ही कोई देश कर पाया हो । देखते ही देखते छोटे मोटे कस्बे शहर में तब्दील होते जा रहे है , गाँव खाली होते जा रहे हैं । देश के चहुमुखी विकास का दावा करने वाली सरकारें अब तक किसानों का दर्द नहीं समझ पायीं । न अनाज का कोई मूल्य रहा, न सुविधाएं दी गयीं । ये गाँव दिन व दिन अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली , पानी , सड़क से बंचित ही होते जा रहे है । ऊपर से क़र्ज़ के ऊपर क़र्ज़ बढता जा रहा है । तो किसान करे तो क्या करे । फिर दो वक्त की रोटी की  तलाश  वो शहर की तरफ भागता है और शहर में आकर क्या देखता है कि एक दौड़ लगी हुई है हर चीज़ में । पिछले 2 सालों में जिस हिसाब से मंहगाई दर बड़ी है उससे कही अधिक गति से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये का मूल्य गिर है जिससे आम आदमी की आमदनी लगभग आधी रह गयी है । इस हाल सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम निराशा ही दे रहा है । क्या शहर और गाँव की दीवार इतनी मजबूत है कि इसे तोड़ने के लिए 60 साल भी कम पद गए है । मुझे लगता है जिस हिसाब से देश तरक्की की बुनियादें डालता जा रहा है उससे शहर और गाँव के बीच की ये मोटी दीवार और मोटी  होती जा रही है । तो फिर ये दीवार गिरायें तो गिरायें कैसे ? क्या इसी तरह देश का किसान  भूख से मरता रहेगा ? यह हमें सोचना होगा और इस दिशा में कड़े कदम उठाने पड़ेंगे । अब यही हमारी प्रगति की सही नीव होगी ।